महाराष्ट्र के औरंगाबाद स्थित मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब के मक़बरे को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने पांच दिनों के लिए बंद कर दिया है.
आल इंडिया मजलिस इत्तेहाद उल मुसलेमीन (एआईएमआईएम) के विधायक अकबरउद्दीन ओवैसी ने हाल ही में औरंगज़ेब की मज़ार का दौरा किया था जिसके बाद विवाद हो गया था.
औरंगज़ेब का मक़बरा महाराष्ट्र के औरंगाबाद शहर से 25 किलोमीटर दूर स्थित ख़ुल्दाबाद शहर में हैं.
हालांकि बहुत से लोग इस बात से हैरान होते हैं कि दिल्ली में मुग़ल सल्तनात के सम्राट रहे औरंगज़ेब को ख़ुल्दाबाद में क्यों दफ़न किया गया.
इसी सवाल का जवाब तलाशने में ख़ुल्दाबाद गया. जिस दरवाज़े से ख़ुल्दाबाद में दाख़िल हुआ जाता है उसे नगरखाना कहा जाता है.
शहर में प्रवेश करते ही दाईं तरफ़ औरंगज़ेब का मक़बरा दिखाई देता है.
ये मक़बरा इस समय एएसआई के संरक्षण में है और एक राष्ट्रीय स्मारक है.
औरंगज़ेब की क़ब्र पर जाने से पहले जूते-चप्पल उतारने पड़ते हैं. जब मैं मक़बरे के दरवाज़े पर पहुंचा तो यहां शेख शुकूर से मुलाक़ात हुई.
सुबह का वक़्त था, यहां बहुत भीड़ नहीं थी. इक्का-दुक्का लोग ही औरंगज़ेब की क़ब्र देखने आए थे.
शेख शुकूर इन लोगों को मक़बरे के बारे में जानकारी दे रहे थे.
औरंगज़ेब का मक़बरा
औरंगज़ेब का मक़बरा बहुत ही सरलता से बनाया गया है. यहां केवल मिट्टी है. मक़बरा एक साधारण सफ़ेद चादर से ढँका हुआ है. क़ब्र के ऊपर एक पौधा लगाया गया है.
शेख शुकूर औरंगज़ेब के मक़बरे की देखभाल करते हैं. उनसे पहले उनकी पांच पीढ़ियाँ इसकी देखभाल करती रही हैं.
शेख शुकूर बताते हैं कि बादशाह औरंगज़ेब ने आदेश दिया था कि उनका मक़बरा बहुत साधारण होना चाहिए.
उनके मुताबिक औरंगज़ेब ने कहा था कि मेरा मक़बरा बहुत सादा होना चाहिए, इसे इसे ‘सब्ज़े’ के पौधे से ढँका होना चाहिए और इसके ऊपर छत न हो.
इस मक़बरे के पास एक पत्थर लगा है जिस पर शहंशाह औरंगज़ेब का पूरा नाम- अब्दुल मुज़फ़्फ़र मुहीउद्दीन औरंगज़ेब आलमगीर लिखा है.
औरंगज़ेब का जन्म साल 1618 में हुआ था और उनका निधन 1707 में हुआ.
इस पत्थर पर हिज़्री कैलेंडर के हिसाब से औरंगज़ेब के जन्म और मृत्यु की तारीख़ अंकित है.औरंगज़ेब की क़ब्र के पास लगा पत्थर
औरंगाबाद में क्यों दफ़न हैं औरंगज़ेब?
औरंगज़ेब की मौत साल 1707 में महाराष्ट्र के अहमदनगर में हुई थी और उनके पार्थिव शरीर को ख़ुल्दाबाद लाया गया था.
औरंगज़ेब ने अपनी वसीयत में लिखा था कि मौत के बाद उन्हें उनके गुरु सूफ़ी संत सैयद ज़ैनुद्दीन के पास ही दफ़नाया जाए.
इतिहासकार डॉक्टर दुलारी क़ुरैशी बताते हैं, “औरंगज़ेब ने एक वसीयत की थी जिसमें साफ़ लिखा था कि वो ख़्वाज़ा सैयद जैनुद्दीन को अपना पीर मानते हैं. ज़ैनुद्दीन औरंगज़ेब से बहुत पहले ही दुनिया को विदा कह चुके थे.”
“औरंगज़ेब बहुत पढ़ाई भी किया करते थे और ख़्वाजा सैयद जैनुद्दीन सिराज का अनुसरण किया करते थे. इसलिए ही औरंगज़ेब ने कहा था कि मेरा मक़बरा सिराज जी के पास ही होना चाहिए.”
औरंगज़ेब ने अपनी वसीयत में ये भी विस्तार से लिखा था कि उनका मक़बरा कैसा होना चाहिए.औरंगज़ेब की क़ब्र
क़ुरैशी कहते हैं, “औरंगज़ेब ने वसीयत की थी कि जितना पैसा मैंने अपनी मेहनत से कमाया है, उसे ही अपने मक़बरे में लगाऊंगा. उन्होंने अपनी क़ब्र पर सब्ज़े का छोटा पौधा लगाने की भी वसीयत की थी. औरंगज़ेब अपने निजी ख़र्च के लिए टोपियां सिला करते थे. उन्होंने हाथ से क़ुरान शरीफ़ भी लिखी.”
औरंगज़ेब की मौत के बाद उनके बेटे आज़म शाह ने ख़ुल्दाबाद में उनके मक़बरे का निर्माण कराया था. औरंगज़ेब की इच्छानुसार उन्हें एक बेहद सादे मक़बरे में सैयद जैनुद्दीन सिराज के पास दफ़न किया गया.
पहले के बादशाहों के मक़बरों में भव्यता का पूरा ध्यान रखा जाता था और सुरक्षा के इंतज़ाम भी होते थे. लेकिन औरंगज़ेब का मक़बरा सिर्फ़ लकड़ी से बना था.
क़ुरैशी बताते हैं, “1904-05 में जब लॉर्ड क़र्ज़न यहां आए तो उन्होंने सोचा कि इतने महान बादशाह का मक़बरा इतना साधारण कैसे हो सकता है और उन्होंने मक़बरे के इर्द-गिर्द संगमरमर की ग्रिल बनवाई और इसकी सज़ावट कराई.”
औरंगज़ेब की क़ब्र के पास सूफ़ी संत ज़ैनुद्दीन शिराज़ी की क़ब्र
‘पृथ्वी पर स्वर्ग’
ख़ुल्दाबाद धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व का गांव हैं. यहां भद्र मारुति मंदिर के अलावा कई सूफ़ी-संतों के स्थान और मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब के अलावा कई रईसों की क़ब्रें भी हैं.
ख़ुल्दाबाद को पहले ‘ज़मीन पर जन्नत’ भी कहा जाता था.
ख़ुल्दाबाद का महत्व बताते हुए इतिहासकार संकेत कुलकर्णी कहते हैं, “काबुल, बुख़ारा, कंधार, समरकंद, ईरान, इराक़, और दूर-दूर से सूफ़ी ख़ुल्दाबाद आते थे.”
“ख़ुल्दाबाद दक्षिण भारत में इस्लाम का गढ़ और सूफ़ी-संतों का केंद्र रहा है. देश और दुनियाभर से सूफ़ी यहां पहुंचे और उनकी क़ब्रें यहीं ख़ुल्दाबाद में हैं.”
मलिक अंबर की मज़ार
इस्लामी आंदोलन का केंद्र बन गया ख़ुल्दाबाद
इतिहासकारों के मुताबिक, 1300 ईसवीं में दिल्ली के सूफ़ी संत हज़रत निज़ामउद्दीन औलिया ने अपने शागिर्द मुंतज़ीबुद्दीन बख़्श को 700 सूफ़ियों और फ़कीरों के साथ दक्कन में इस्लाम का प्रसार करने के लिए देवगिरी भेजा था.
उस दौर में दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने राजा रामदेवराय यादव को अपने अधीन किया था.
मुंतज़ीबुद्दीन ने दौलताबात को अपना केंद्र बनाया और अपने साथ आए सूफ़ियों और फ़कीरों को इस्लाम फैलाने के लिए दक्षिण भारत में भेजा. 1309 में यहीं उनका निधन हो गया और उनकी दरगाह यहीं ख़ुल्दाबाद में एक पहाड़ की तलहटी में बनाई गई.
इतिहासकार संकेत कुलकर्णी बताते हैं, “मुंतज़ीबुद्दीन की मौत के बाद निज़ामुद्दीन औलिया ने अपने उत्तराधिकारी बुरहानउद्दीन ग़रीब नवाज़ को 700 और पालकियों (फ़कीरों और सूफ़ियों) के साथ दक्कन भेजा. उन्हें साथ में पैग़ंबर मोहम्मद की पोशाक का हिस्सा और उनके चेहरे के बाल भी दिए. तब से ख़ुल्दाबाद इस्लाम का केंद्र बन गया. बुरहानउद्दीन ने यहां 29 साल सेवा की.”
“बाद में सुल्तान मुहम्मद तुग़लक ने देवगिरी को अपनी राजधानी बनाया. उसी दौरान उस दरबार के काज़ी और इस्लामी विद्वान दाऊद हुसैन शिराज़ी को ज़ैनुद्दीन ने अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया. हालांकि ज़ैनुद्दीन ने अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति नहीं कि क्योंकि उन्हें कोई इस लायक नहीं लगा.”नगरखाना, खुल्दाबाद
17वीं शताब्दी में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने शिराज़ी की दरगाह का दौरा किया था और 14वीं शताब्दी में किए गए उनके कामों से प्रेरित होकर ही औरंगज़ेब ने दक्कन में अपने अभियान को अंज़ाम दिया. औरंगज़ेब ने ज़ैनुद्दीन शिराज़ी की क़ब्र को चूमा और उन्हें अपना पीर मान लिया.
कुलकर्णी कहते हैं, “औरंगज़ेब ने कहा था कि मेरा निधन भारत में कहीं भी हो लेकिन मुझे दफ़न यहीं ज़ैनुद्दीन शिराज़ी के पास होना चाहिए.”
औरंगज़ेब का महाराष्ट्र से कनेक्शनऔरंगज़ेब
शाहज़हां जब मुग़ल शहंशाह थे तब उन्होंने अपने तीसरे बेटे औरंगज़ेब को दौलताबाद भेजा था. 1636 से 1644 तक औरंगज़ेब सूबेदार रहे और ये उनकी पहली सूबेदारी थी.
इतिहासकारों का कहना है कि बाद में औरंगज़ेब ने अपना मुख्यालय दौलताबाद से औरंगाबाद स्थानांतरित कर दिया, क्योंकि उन्हें औरंगाबाद अधिक पसंद था.
डॉ. क़ुरैशी कहते हैं, “औरंगज़ेब ने दौलताबाद से लेकर एलुरू तक पूरे दक्कन का दौरा किया था. उसने दौलताबाद से एलुरू तक सड़क भी बनाई थी.”
साल 1652 में औरंगज़ेब को दोबारा औरंगाबाद की सूबेदारी मिली और वो यहां लौट आए. 1652 से 1659 के बीच औरंगज़ेब ने औरंगाबाद में कई निर्माण कार्य किए. इसमें हिमायत बाग़ और फोर्ट आर्क जैसे कई बाग़ शामिल हैं.
औरंगज़ेब ने मुग़लत सल्तनत को लगभग समूचे भारत में फैला दिया था, लेकिन महाराष्ट्र की तरफ़ से मराठों का आक्रमण बढ़ रहा था. औरंगज़ेब 1681-82 में दक्कन लौट आए और 1707 में अपनी मृत्यु तक इधर ही रहे.
1707 में अहमदनगर में औरंगज़ेब का निधन हो गया था.
पर्यटन के लिए अहम है ख़ुल्दाबाद
ख़ुल्दाबाद की पहचान औरंगज़ेब के मक़बरे तक ही सीमित नहीं है. यहां भद्र मारुति का प्रसिद्ध मंदिर हैं. औरंगज़ेब की पोती बानी बेग़म का बग़ीचा है. उस बग़ीचे के बगल में झील है.
अकबरउद्दीन ओवैसी की यात्रा के बाद भले ही राजनीतिक टीका-टिप्पणी हो रही हो, लेकिन इतिहासकार मानते हैं कि ख़ुल्दाबाद पर्यटन के लिहाज़ से अहम जगह है. इसका ऐतिहासिक महत्व भी है.
संकेत कुलकर्णी कहते हैं, “सातवाहन राजवंश के काल के अवशेष यहां मिले हैं. औरंगज़ेब के मक़बरे के अलावा यहां 12-15 प्रसिद्ध सूफ़ी संतों की दरगाहें हैं, जहां हर साल उर्स लगते हैं. “
ख़ुल्दाबाद का भद्र मारुति मंदिर प्रसिद्ध तीर्थस्थल हैं, जहां हनुमान जयंती पर श्रद्धालु आते हैं.
औरंगाबाद में ही औरंगज़ेब ने अपनी पत्नी के लिए बीबी का मक़बरा बनवाया था, जिसे दक्कन का ताज भी कहा जाता है.
मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने अपने 87 साल के जीवन में 36-37 साल औरंगाबाद में बिताए और यहीं वो दफ़न भी हो गए.